द्वाराहाट (कुमाऊँ का खजुराहो)

द्वाराहाट (कुमाऊँ का खजुराहो) –
महाऋषि मुनि गर्ग रहे हों या गुरु द्रोण अथवा महाराजा भरत। तमाम ऋषि मनिषियों की तपो स्थली पौराणिक द्वारका यानी वर्तमान द्वाराहाट कुमाऊं की प्राचीन सांस्कृतिक, आध्यात्मिक व धार्मिक नगरी के साथ ही 7वीं सदी के बाद अनूठी स्थापत्य कला की प्रयोगशाला भी रही है। अहम पहलू यह कि कृष्ण के सपनों की यह द्वारका ध्यान योग का भी गढ़ रही है। महाअवतार बाबा से ‘क्रिया योग’ की दीक्षा शिष्य श्यामाचरण लाहड़ी ने पांडवखोली में ही ली थी। फिर युक्तेश्वर महाराज व परमानंद योगानंद ने इसी तपो स्थली से भारतीय वैदिक परंपरा ‘क्रिया योग’ को आगे बढ़ाया। चार दशक पूर्व ध्यानमग्न महात्मा बलवंत गिरि जी महाराज अध्यात्म के इसी केंद्र में ब्रह्मïलीन हुए थे। तभी से पांडवों की खोली में उत्सव की परंपरा है।
दूनागिरी, पांडुखोली और भटकोट कुमाऊ की सबसे ऊंची गैर हिमालयन पर्वत श्रृंखला है। द्वाराहाट उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में एक शहर है, जहाँ उत्तराखंड के विभिन्न शहरों से सड़क परिवहन द्वारा पहुंचा जा सकता है। इस नगर को इतिहास में वैराटपट्टन तथा लखनपुर समेत कई नामों से जाना जाता रहा है।
द्वाराहाट उत्तराखण्ड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले की एक नगर पंचायत है जो रानीखेत से लगभग 32 किलोमीटर दूर स्थित है। द्वाराहाट में तीन वर्ग के मन्दिर हैं—कचहरी, मनिया तथा रत्नदेव। इसके अतिरिक्त बहुत से मन्दिर प्रतिमाविहीन हैं। द्वाराहाट में मां दूनागिरी, विभांडेश्वर, मृत्युंजय और गूजरदेव का मन्दिर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। पुरातात्विक रूप से, द्वाराहाट के 55 मंदिरों के समूह को 8 समूह में विभाजित किया जा सकता है। गुज्जर देव, कछारी देवल, मांडवे, रतन देवल, मृत्युंजय, बद्रीनाथ और केदारनाथ। इन मंदिरों का निर्माण 10 से 12 सदी के बीच किया गया था। अधिकतर मंदिर मूर्ति विहीन है।
कुमाऊँ की एक प्रचलित लोककथा के अनुसार सम्पूर्ण उत्तराखण्ड क्षेत्र के भौगोलिक केंद्र में स्थित होने के कारण द्वाराहाट को देवताओं ने इस क्षेत्र की राजधानी के रूप में चुना था, जो सुंदरता और भव्यता में दक्षिण में स्थित कृष्ण की द्वारका के समानांतर हो।

दूनागिरी
दूनागिरी मंदिर कुमाऊ के प्रसिद्ध तीर्थ स्थलो में एक है। मंदिर तक पहुचने के लिए करीब 365 सीढ़िया चढ़नी होती है। पूरा मार्ग टीन के छत से ढका हुआ है जिससे श्रद्धालुओं को धूप व बारिश से बचाव हो सके मार्ग में कुछ कुछ दूरी पर आराम करने के लिए सीमेंट व लोहे के बेंच भी बने हुए हैं पूरे मार्ग में हजारों घंटियां लगी हुई है जो दिखने में लगभग एक जैसे है। माँ दुनागिरी मंदिर तक पहुचने के लिए लगभग 800 मीटर की दूरी चलकर तय करनी होती है। लगभग दो तिहाई रास्ता तय करने के बाद भंडारा स्थल हैं जहाँ प्रतिदिन सुुुबह 9 बजे साम के 4 बजे तक भंडारे का आयोजन किया जाता है जिससे यहां आने जाने वाले श्रद्धालु प्रसाद ग्रहण करते है प्रसाद आदि ग्रहण करने के बाद सभी श्रद्धालु अपने बर्तन स्वयं धोते है एवं दानपात्र में अपने श्रद्धानुसार भेट चढ़ाते है जिससे भंडारे का कार्यक्रम अनवरत चलते रहता है।
दूनागिरी मुख्य मंदिर में कोई मूर्ति नही है बल्कि प्राकृतिक रूप से निर्मित सिद्ध पीडिया माता भगवती पूजी जाती है। दूनागिरि मंदिर में अखंड ज्योति का जलना इस मन्दिर की एक विशेषता है। दूनागिरी माता मंदिर में बलि नही चड़ाई जाती है यहां तक कि मंदिर में भेंट किया जाने वाला नारियल भी मंदिर परिसर में भी नही फोड़ा जाता है। पुराणों, उपनिषदों और ऐतिहासिक दस्तावेजों ने दूनागिरी की पहचान माया माहेश्वरी व दुर्गा कालिका के रूप में की है।
इस स्थल के बारे में प्रचलित कथा में यह कहा जाता है कि त्रेता युग मे जब लक्ष्मण को मेघनाथ द्वारा शक्ति लगी थी तब सुषेन वैद्य ने हनुमानजी से द्रोणाचल नाम के पर्वत से संजीवनी बुटी लाने को कहा था। बुटी की पहचान ना होने की वजह से जब हनुमान जी आकाश मार्ग से पूरा द्रोणाचल पर्वत उठाकर ले जा रहे थे तो इस स्थान पर पर्वत का एक छोटा सा टुकड़ा गिर गया और फिर उसके बाद इस स्थान में दूनागिरि मंदिर का निर्माण किया गया। एक अन्य मान्यता के अनुसार गुरु द्रोणाचार्य ने इस पर्वत पर तपस्या की थी जिस कारण इसका नाम द्रोणागिरी पड़ा और बाद में स्थानीय बोली के अनुसार दूनागिरी हो गया।
एक अन्य जानकारी के अनुसार कत्युरी शासक सुधार देव ने सन 1318 ई० में इस मंदिर का पुनः निर्माण कर माँ दुर्गा की मूर्ति स्थापित की थी। माँ दूनागिरि मंदिर की एक यह मान्यता भी है जो भी महिला यहां अखंड दीपक जलाकर संतान प्राप्ति के लिए पूजा करती है उसे माँ संतान का सुख प्रदान करती है।

पांडूखोली
महाभारतकालीन पांडू पुत्रों ने अज्ञातवास के दौरान देवभूमि यानी उत्तराखंड में अनेक स्थानों पर दिन गुजारे थे। तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य और कथाएं इस बात का प्रमाण हैं। पांडूखोली एक ऐसी जगह है जहां गुफाएं हैं और यह द्वाराहाट से 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। दूनागिरी से 5 किमी दूरी पर कुकुरछीना पड़ता है कुकुरछीना से लगभग 4 किमी का पेेदल पथ तय कर के सुुप्रसिद्ध पाण्डखोली आश्रम पहुुँचा जा सकता है। यहाँ स्व० बाबा बलवन्त गिरी जी ने आश्रम की स्थापना की थी और महावतार बाबा व लाहिड़ी महाशय जैसे उच्च आध्यात्मिक संतों की तपस्थली भी रहा है।
गुफाएं 8,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित हैं। नाम पांडुकोली का शाब्दिक अर्थ है ‘पांडू’ अथार्त पांडव और ‘खोली’ का मतलब आश्रय है,अर्थात ‘पांडवो का आश्रय ‘। पहाड़ी में अनेकों अनदेखी गुफाएं हैं क्योंकि जैसे ही धरती पर पैर मारते हैं तो कोई भी खोखले ड्रम की भांति ध्वनि सुन सकता है। पांडखोली जाने का मार्ग बाज़-बुरांश आदि पेड़ो से घिरा है। कहते हैं कि पांडवो की तलाश में कौरव सेना भी यहां पहुची लेकिन जिस स्थान तक वह पहुची थी उस स्थान का नाम कौरव छीना पड़ा जिसे अब कुकुरछीना के नाम से जाना जाता हैं।
पांडुखोली आश्रम से लगा हुआ है सुंदर बुग्याल नुमा घास का मैदान। यहाँ आकर हदय आनंद से भर जाता है इसे भीम का गद्दा के नाम से भी जाना जाता है यहा मैदान पर पैर मारने पर खोखले बर्तन कि तरह कंपन महसूस किया जा सकता है।
कालांतर में पांडव भक्तों ने पाषाण के प्रतीक स्वरूप पांच पांडु पुत्रों की मौजूदगी का सुबूत देने के लिए वीरखंभ स्थापित किए। जो सदियों बाद आज भी पांडवखोली के शिखर पर पांडु पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव की तपोस्थली की गवाही देते हैं।

भटकोट
त्रेता युग में श्रीराम के अनुज भरत ने भी इस क्षेत्र में (भरतकोट या भटकोट) तपस्या की थी। वाल्मीकि रामायण के अनुसार न राजा यत्र पीड़ा स्यान्नाश्रमाणां विनाशनम्। स देशो दृश्यतां सौम्य नापराध्या महे यथा। अयं कारुपथो देशो रमणीयो निरामया…अंगदं पश्चिमां भूमिं चंद्रकेतु मुखम्। अर्थात श्रीराम अपने अनुज भरत को आदेश देते हैं कि लक्ष्मण के पुत्र अंगद व चंद्रकेतु को ऐसा राज्य प्रदान करना है, जहां उन्हें कोई कष्ट न हो। तब भरत हिमालय अंचलों में भ्रमण करते हुए उत्तराखंड के विषय में श्रीराम को बताते हैं कि ऐसा क्षेत्र मिल गया है। कम आबादी का वह क्षेत्र विघ्न बाधा रहित है। गगास नदी जो सोमेश्वर में बहती है उसका उदगम स्थल भी यही है।


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